Monday, 17 August 2015

Gulzar >> story >> ['धुआँ' ]

बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे कस्बे में 'धुआँ' भर गया। चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी। सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला खैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे। नौकर जब मुल्ला को आँगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहाँ चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी। दो सफेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफेद बाल। चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था।

मुल्ला ने देखते ही 'एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन' पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे। अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी। चौधरी की आख़िरी खुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गाँव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है।
मुल्ला पढ़ के चुप रहा। चौधरी ने दीन मज़हब के लिए बड़े काम किए थे गाँव में। हिन्दु-मुसलमान को एकसा दान देते थे। गाँव में कच्ची मस्जिद पक्की करवा दी थी। और तो और हिन्दुओं के शमशान की इमारत भी पक्की करवाई थी। अब कई वर्षों से बीमार पड़े थे, लेकिन इस बीमारी के दौरान भी हर रमज़ान में गरीब गुरबा की अफ़गरी (अफ़तारी) का इन्तज़ाम मस्जिद में उन्हीं की तरफ़ से हुआ करता था। इलाके के मुसलमान बड़े भक्त थे उनके, बड़ा अकीदा था उन पर और अब वसीयत पढ़ के बड़ी हैरत हुई मुल्ला को कहीं झमेला ना खड़ा हो जाए। आज कल वैसे ही मुल्क की फिज़ा खराब हो रही थी, हिन्दू कुछ ज़्यादा ही हिन्दू हो गए थे, मुसलमान कुछ ज़्यादा मुसलमान!!
चौधराइन ने कहा, 'मैं कोई पाठ पूजा नहीं करवाना चाहती। बस इतना चाहती हूँ कि शमशान में उन्हें जलाने का इन्तज़ाम कर दीजिए। मैं रामचन्द्र पंडित को भी बता सकती थी,लेकिन इस लिए नहीं बुलाया कि बात कहीं बिगड़ न जाए।'
बात बताने ही से बिगड़ गई जब मुल्ला खैरूद्दीन ने मसलेहतन पंडित रामचंन्द्र को बुला कर समझाया कि --
'तुम चौधरी को अपने शमशान में जलाने की इज़ाज़त ना देना वरना हो सकता है, इलाके के मुसलमान बावेला खड़ा कर दें। आखिर चौधरी आम आदमी तो था नहीं, बहुत से लोग बहुत तरह से उन से जुड़े हुए हैं।'
पंडित रामचंद्र ने भी यकीन दिलाया कि वह किसी तरह की शर अंगेज़ी अपने इलाके में नहीं चाहते। इस से पहले बात फैले, वह भी अपनी तरफ़ के मखसूस लोगों को समझा देंगे।
बात जो सुलग गई थी धीरे-धीरे आग पकड़ने लगी। सवाल चौधरी और चौधराइन का नहीं हैं, सवाल अकीदों का है। सारी कौम, सारी कम्युनिटि और मज़हब का है। चौधराइन की हिम्मत कैसे हुई कि वह अपने शौहर को दफ़न करने की बजाय जलाने पर तैयार हो गई। वह क्या इसलाम के आईन नहीं जानती?'
कुछ लोगों ने चौधराइन से मिलने की भी ज़िद की। चौधराइन ने बड़े धीरज से कहा,
'भाइयों! ऐसी उनकी आख़री ख्व़ाहिश थी। मिट्टी ही तो है, अब जला दो या दफन कर दो, जलाने से उनकी रूह को तसकीन मिले तो आपको एतराज़ हो सकता है?'
एक साहब कुछ ज़्यादा तैश में आ गए।
बोले, 'उन्हें जलाकर क्या आप को तसकीन होगी?'
'जी हाँ।' चौधराइन का जवाब बहुत मुख्तसर था।
'उनकी आख़री ख़्वाहिश पूरी करने से ही मुझे तसकीन होगी।'
दिन चढ़ते-चढ़ते चौधराइन की बेचैनी बढ़ने लगी। जिस बात को वह सुलह सफाई से निपटना चाहती थी वह तूल पकड़ने लगी। चौधरी साहब की इस ख़्वाहिश के पीछे कोई पेचीदा प्लाट, कहानी या राज़ की बात नहीं थी। ना ही कोई ऐसा फलसफ़ा था जो किसी दीन मज़हब या अकीदे से ज़ुड़ता हो। एक सीधी-सादी इन्सानी ख्व़ाहिश थी कि मरने के बाद मेरा कोई नाम व निशान ना रहे।
'जब हूँ तो हूँ, जब नहीं हूँ तो कहीं नहीं हूँ।'
बरसों पहले यह बात बीवी से हुई थी, पर जीते जी कहाँ कोई ऐसी तफ़सील में झाँक कर देखता है। और यह बात उस ख़्वाहिश को पूरा करना चौधराइन की मुहब्बत और भरोसे का सुबूत था। यह क्या कि आदमी आँख से ओझल हुआ और आप तमाम ओहदो पैमान भूल गए।
चौधराइन ने एक बार बीरू को भेजकर रामचंद्र पंडित को बुलाने की कोशिश भी की थी लेकिन पंडित मिला ही नहीं। उसके चौकीदार ने कहा --
'देखो भई, हम जलाने से पहले मंत्र पढ़के चौधरी को तिलक जरूर लगाएँगे।'
'अरे भई जो मर चुका उसका धर्म अब कैसे बदलेगा?'
'तुम ज़्यादा बहस तो करो नहीं। यह हो नहीं सकता कि गीता के श्लोक पढ़े बगैर हम किसी को मुख अग्नि दें। ऐसा ना करें तो आत्मा हम सब को सताएगी, तुम्हें भी, हमें भी। चौधरी साहब के हम पर बहुत एहसान हैं। हम उनकी आत्मा के साथ ऐसा नहीं कर सकते।'
बीरू लौट गया।
बीरू जब पंडित के घर से निकल रहा था तो पन्ना ने देख लिया। पन्ना ने जाकर मस्जिद में ख़बर कर दी।
आग जो घुट-घुट कर ठंडी होने लगी थी, फिर से भड़क उठी। चार-पाँच मुअतबिर मुसलमानों ने तो अपना कतई फैसला भी सुना दिया। उन पर चौधरी के बहुत एहसान थे वह उनकी रूह को भटकने नहीं देंगे। मस्जिद के पिछवाड़े वाले कब्रिस्तान में, कब्र खोदने का हुक्म भी दे दिया।
शाम होते-होते कुछ लोग फिर हवेली पर आ धमके। उन्होंने फ़ैसला कर लिया था कि चौधराइन को डरा धमका कर, चौधरी का वसीयतनामा उससे हासिल कर लिया जाए और जला दिया जाए फिर वसीयतनामा ही नहीं रहेगा तो बुढ़िया क्या कर लेगी।
चौधराइन ने शायद यह बात सूँध ली थी। वसीयतनामा तो उसने कहीं छुपा दिया था और जब लोगों ने डराने धमकाने की कोशिश की तो उसने कह दिया,
'मुल्ला खैरूद्दीन से पूछ लो, उसने वसीयत देखी है और पूरी पढ़ी है।'
'और अगर वह इन्कार कर दे तो?'
'कुरआन शरीफ़ पर हाथ रख के इन्कार कर दे तो दिखा दूँगी, वरना...'
'वरना क्या?'
'वरना कचहरी में देखना।'
बात कचहरी तक जा सकती है, यह भी वाज़े हो गया। हो सकता है चौधराइन शहर से अपने वकील को और पुलिस को बुला ले। पुलिस को बुला कर उनकी हाज़री में अपने इरादे पर अमल कर ले। और क्या पता वह अब तक उन्हें बुला भी चुकीं हों। वरना शौहर की लाश बर्फ़ की सिलों पर रखकर कोई कैसे इतनी खुद एतमादी से बात कर सकता है।
रात के वक्त ख़बरे अफ़वाहों की रफ्तार से उड़ती है।
किसी ने कहा, 'एक घोडा सवार अभी-अभी शहर की तरफ़ जाते हुए देखा गया है। घुड़सवार ने सर और मुँह साफे से ढांप रखा था, और वह चौधरी की हवेली से ही आ रहा था।'
एक ने तो उसे चौधरी के अस्तबल से निकलते हुए भी देखा था।
ख़ादू का कहना था कि उसने हवेली के पिछले अहाते में सिर्फ़ लकड़ियाँ काटने की आवाज़ ही नहीं सुनी, बल्कि पेड़ गिरते हुए भी देखा है।
चौधराइन यकीनन पिछले अहाते में, चिता लगवाने का इन्तज़ाम कर रही हैं। कल्लू का खून खौल उठा।
'बुजदिलों - आज रात एक मुसलमान को चिता पर जलाया जाएगा और तुम सब यहाँ बैठे आग की लपटें देखोगे।'
कल्लू अपने अड्डे से बाहर निकला। खून खराबा उसका पेशा है तो क्या हुआ? ईमान भी तो कोई चीज़ है।
'ईमान से अज़ीज तो माँ भी नहीं होती यारों।'
चार पाँच साथियों को लेकर कल्लू पिछली दीवार से हवेली पर चढ़ गया। बुढ़िया अकेली बैठी थी, लाश के पास। चौंकने से पहले ही कल्लू की कुल्हाड़ी सर से गुज़र गई।
चौधरी की लाश को उठवाया और मस्जिद के पिछवाड़े ले गए, जहाँ उसकी कब्र तैयार थी। जाते-जाते रमजे ने पूछा,
'सुबह चौधराइन की लाश मिलेगी तो क्या होगा?'
'बुढ़िया मर गई क्या?'
'सर तो फट गया था, सुबह तक क्या बचेगी?'
कल्लू रुका और देखा चौधराइन की ख़्वाबगाह की तरफ़। पन्ना कल्लू के 'जिगरे' की बात समझ गया।
'तू चल उस्ताद, तेरा जिगरा क्या सोच रहा है मैं जानता हूँ। सब इन्तज़ाम हो जाएगा।'
कल्लू निकल गया, कब्रिस्तान की तरफ़।
रात जब चौधरी की ख्व़ाबगाह से आसमान छुती लपटें निकल रही थी तो सारा कस्बा धुएँ से भरा हुआ था।
ज़िन्दा जला दिए गए थे,
और मुर्दे दफ़न हो चुके थे।

Why Do You Want To Be An Actor? (First ask yourself & then move)


Why are we doing this?
It’s important to ask ourselves this question.
Do you ever stop and ask yourself why you want to act? Or create? Or live your life as an artist?
Sometimes we lose connection to—or allow the business to contaminate us—the original reasons why we wanted to create. And for that reason alone, it’s important to revisit the deeper reasons we call ourselves artists.
If it’s for the applause—that will fade away. If it’s for the adulation, that will be replaced by someone younger, hotter, smarter being the new flavor of the month. If it’s for approval, acceptance, worthiness, or love—you won't ever find it anywhere outside of yourself. You can’t get it from a teacher or lover or friend or parent or casting director or agent.
You have to start doing it for you. Find the reasons why you wanted to do it in the beginning. To create. To express. To have fun. To be human. To actually discover yourself.
Those are the real reasons we’re doing it, and we’re not even aware of it. We’re not even aware of the deeper forces at play within ourselves that compel us to make art. To tell stories. To feel. To emote. To risk. To share. To live life courageously and vulnerably as an artist.
We’re brainwashed into thinking our challenges will be solved. We'll have your “come to Jesus” moment—when we book the TV series, star opposite Russell Crowe, have the perfect boyfriend, buy that great house or car—and what we realize is that the outer can never replace the inner.
Those things may be gratifying. Intoxicating. Exciting. Fun. And those things are deserved. They’re wonderful. They can be career-building and part of our journey.
But real fulfillment is in our discovering not only who we are but also overcoming all the limitations we’ve placed on our humanity in the pursuit of this thing called acting.
We must start doing it for ourselves. Celebrate who we are. In the audition room. In the performance. In getting or not getting a job. In the victories and the struggles. In our deepest primal and spiritual connection to the reason we wanted to act in the first place:
We need to reflect back to humanity what it really means to be human.

Sunday, 16 August 2015

THEATER IN EDUCATION

थिएटर इन एजुकेशन सही मायने में है क्या ??? एक सर्वे के हिसाब से पाया गया है की ,६०% लोग ऐसे है की जिन्हे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है ,वह थिएटर को फिल्म देखने वाला टाकिज़ या मल्टीप्लेक्सेक्स के नाम से हीजानते है.बचे ४०% में से २०% लोग ऐसे भी है जिन्हे इसके बारे में पता तो है , मगर वो इस तक पहुंच नही पा रहे है.और बाकि के लोग वो है जो ,थिएटर से लोगो को जोड़ना और जागरूक करना चाह रहे है,मगर उनके असफल प्रयास हमारे सामने है .इस मायने में थिएटर इन एजुकेशन बहुत ही कारगर सिद्ध हो सकता हो सकता.आज हर इंसान शिक्षा से जुड़ना चाहता है ,तो उसी के साथ थिएटर को जोड़ना एक ऐसा सफल प्रयास है जो बच्चो से लेकर हर उम्र वालो के एक नयी राह दिखाएगा.वैसे थिएटर सही रूप में है क्या ?? थिएटर हमें वो सब कछ सिखाता है ,जिससे हम विलुप्त होते जा रहे है.हमारा शरीर कला ,रचनात्मकता और ऐसी अन्य करिगरियो ये भरा पड़ा है. हर इंसान को अपने आप को पहचानना जरुरी है.इसके खास फायदे ये है की ,ये हमें अत्यधिक सहस प्रदान करता है ,जिससे हमारे वाद विवाद ,बॉडी लेंग्वेज ,हमारे बात करने का ढंग , समाज के प्रति जागरूकता ,नयी सोच ,ग्रुप में मिल जुल कर कार्य करना ,अन्य कई फायदों से रूबरू करता है , जिनसे शायद कई लोग जीवन भर परे रह जाते है .पढाई के साथ साथ खेल कूद से लेकर बच्चो की रचनात्मकता को बहार निकालने के लिए इससे सफल प्रयास और कोई नही हो सकता. 

Saturday, 15 August 2015

HOW TO CREATE A CHARACTER >>> IMMORTAL ???

एक एक्टर के लिए सबसे कठिन कार्य है, उसके नए किरदार को बखूबी गढ़ना. ये बड़ा ही वेदना भरा कार्य है,क्योंकि हमारे अंदर हमारी परेशानियों से लेकर आर्थिक सामाजिक सभी तरह के विचार कूट कूट कर भरे होते है .इसी  के बीच से हमें उस नए रूप को , नए किरदार को जन्म देना होता है .उसे अपना बनाना पड़ता है ,एक तरह से एक नया जीवन जीना पड़ता है, जो की इतना आसान नही है. मगर कछ लोग इस काम को बड़े ही अद्भुत तरीके से हमारे सामने पेश करते है ,और हमेशा  हमेशा के लिए दुनिया पर छाप छोड़ जाते है. जैसे की -(डेनियल डे लेविस इंग्लिश एक्टर ) अभिनय के क्षेत्र में इन्हे मेथड एक्टर के नाम से  जाना जाता है.जो अपनी एक्टिंग से हमेशा सभीको आश्चर्य चकित करते आये है.वैसे तो इनकी सभी फिल्मे ऑस्कर विनर है इनके अभिनय को लेकर ,मगर अभी में  इनकी दो फिल्मो पर बात करूँगा. उनमे है (माय लेफ्ट फुट ,देउर विल बी ब्लड )  १. माय लेफ्ट फुट में इन्होने एक सेरिब्रल पाल्सी  से पीड़ित व्यक्ति का किरदार अदा किया है , इसके किरदार को पकड़ने के लिए इन्होने काफी साल व्हील चेयर पर गुजारे ,जिससे इन्हे बैक पैन की समस्या भी आई. इनकी खूबी है की ये सबसे पहले किरदार के एक्सेंट पर ध्यान देते है फिर उसकी बाकि भाव पर.उसे पूरी तरह अपना बनाने के लिए ये किसी भी हद्द तक जा सकते है, उसके बीच में किसी को नही आने देते.कहते है की शूटिंग के वक़्त भी खाली समय में भी डेनियल अपने उसी रूप में व्हील चेयर पर अटल रहते थे ,जिससे क्रू के अन्य मेंबर को काफी परेशानी होती थी ,मगर उन्हें इस बात से कोई फर्क नही पड़ता,उनका एक ही लक्ष्य होता है की कही लोगो को इसमें डेनियल नज़र न आ जाये .उनका मानना है की फिल्म की शुरुआत उस दिन से नही होती जिस दिन हमारे सामने कैमरा आता है ,जो भी है सब कछ हमारे आसपास है, समाज में , लोगो में सब में ड्रामा की वेव्स है.इसी तरह से हर फिल्म की शुरुआत से  उन बातो से जुड़ने की कोशिश करते जो उस वक़्त घटी होगी ,समय की चिंता न करते हुए .डेयर विल बे ब्लड जो की एक आयल टाइकून पर आधारित है,इतने जटिल तरीके से उसमे खो जाना परिवार और अन्य लोगो के बीच बड़ा दूभर हो जाता है ,मगर उन्हें इस बात से कोई वास्ता नही .शायद यही ठीक है किसी कार्य को किया जाये तो ऐसे ही किया जाये की उसके सीवा कुछ न नज़र आये फिर चाहे जो भी अंजाम हो .HE SAID THAT , THERE IS NO LIMIT OF TIME TO DISCOVER WHOLE LIFE ,LIFE IS A PLAYGROUND  , WHY YOU DONT STAY OR PLAY?? 

Nukkad Natak>> On Todays Girls Problems (Written By Me )







Top 3 Casting Directors You Can Contact For Bollywood Entry

Though there are hundreds of casting directors in India, most of them, in Mumbai, here are the three TOP ONESwho are selecting and recommending actors to leading production houses of Bollywood.
Whatever information I could gather about them, I have given below. More, you have to find out yourself through social networking sites and from other casting directors or actors.
However, one of the ways to contact them is to send your details and portfolio as a "message" through their Facebook Page, on the link given below under their names.
(You must have your own Facebook account)

Nandini Shrikent

Nandini Shrikent

Facebook page (You can send your portfolio as a "message")
https://www.facebook.com/nandini.shrikent?fref=ts
Advice for aspiring actors
"Watch films, watch plays, watch people, keep it real and be positive. The rest is up to Dionysus".

Vicky Sidana


Vicky Sidana

Facebook page (You can send your portfolio as a "message")
https://www.facebook.com/VickySidanaCastingDirector
Twitter page (You can tweet your website or request for his contact Email/Number)
https://twitter.com/vickysidana_

Mukesh Chhabra

Mukesh Chhabra

Interested are requested to send in your latest pictures (Max. upto 4 pictures not exceeding 2Mb) with the following Email Id-
mukeshchhabra27@gmail.com
Facebook profile
https://www.facebook.com/mukesh.chhabra.754
Mukesh Chhabra casting coon Facebook
https://www.facebook.com/pages/Mukesh-Chhabras-Casting-Co/508627739217032
Mukesh Chhabra's website
http://www.mccc.in/

Friday, 14 August 2015

THE HISTORY OF INDIAN CINEMA

Harishchandrachi Factory
 The 2009 biopic about Marathi Phalke, Harishchandrachi Factory. PR
In October 1917, Hiralal Sen was sick, bankrupt and just a few days away from death when he received some cruel news. His brother's warehouse was on fire and, as it burned, Sen's career as a film-maker went up in flames. The warehouse contained the entire stock of the Royal Bioscope Company, the Sen brothers' firm, which showed and produced films in the Kolkata area in the early years of the 20th century. The blaze destroyed Sen's films, and with them much of the proof of India's early cinema history.
The centenary celebrations suggest that Indian film production began in 1913, but that is far from the truth. "The history of Indian cinema before 1913 is a fragmentary one, but it is no less interesting for that," says Luke McKernan, moving image curator at the British Library. "It is still not fully understood, and too much overlooked." We can't watch these films today – in fact, estimates suggest that 99% of Indian silents are lost. But what we do know is that the history of Indian cinema has a little-known prequel.
Movies first came to Mumbai on 7 July 1896. The Lumière brothers sent a man named Marius Sestier to screen their short films to a mostly British audience at the swanky Watson hotel. Sen was not there – he would see the cinema two years later in Kolkata. But local photographer Harishchandra Sakharam Bhatavdekar(popularly known as Save Dada) was at one of those first Mumbai shows – and he was promptly moved to order a camera of his own from the UK.
Bhatavdekar's first movie, and the first by an Indian film-maker, was shot in 1899 – he captured a wrestling match in Mumbai's Hanging Gardens. The reel had to be shipped back to the UK for processing, but Bhatavdekar's career in the motion-picture business, and Indian film production itself, had begun. By the time The Wrestlers returned to Mumbai ready for exhibition, he had bought a projector and was screening foreign-made films. He supplemented his imports with the films he made himself. When maths scholar RP Paranjpe returned to India from Cambridge, Bhatavdekar captured the moment – and this may well be the first Indian news footage. Bhatavdekar continued to make films until the mid-1900s, when he made a sideways move and bought the Gaiety Theatre in Mumbai – which he ran successfully, and lucratively, until his death.
Sen's career ran in the opposite direction. When he began showing imported films in theatre intervals, the local paper raved: "This is a thousand times better than the live circuses performed by real persons. Moreover it is not very costly … Everybody should view this strange phenomenon." Soon he added his own titles, shooting play scenes, from The Flower of Persia to Ali Baba and the Forty Thieves. After 1904, he specialised in news footage, but as time went on, he found it harder to compete with imported films – eventually closing the business and selling all his equipment.
One of those competitors was Jamshedji Madan, a former theatre impresario whose Elphinstone Bioscope Company made, distributed and exhibited films. Madan made a lot of money out of the movies, acquiring the rights to show films from overseas studios, and in 1907 establishing India's first purpose-built cinema, the Elphinstone Picture Palace in Kolkata.

We know that Not just foreign films, but foreign film-makers came to India, shooting mostly documentary footage, which was then shown globally. McKernan picks out the British film director Charles Urban("both a colonialist film-maker and one who saw beyond colonialism"), whose equipment was often used by native film-makers, and who sent cameramen to the region throughout the early film period. Some of the films he shot were lavish Kinemacolor numbers – notablyWith Our King and Queen Through India, a record of the royal visit to the 1911 Delhi durbar (celebrating King George V's coronation), which became an international box-office hit.
all this film-making and film-watching was going on in the 1900s and 1910s, but if the movies are lost, what's the relevance? "It would be hard to explain how the Mumbai industry took off so fast in the 1920s without taking into account the 'cinema habit' of the previous two decades," says Kaushik Bhaumik, deputy director of the Cinefan film festival in Osian. "The imported films seen during this period provided Indians with a lot of experience of cinema that was crucial to the film production that followed." In fact, it was at a screening of an imported film that stage magician and photographer Dadasaheb Phalke had the Indian film industry's Eureka moment. Phalke was watching a lavish film based on the Christian bible: "While the life of Christ was rolling before my eyes I was mentally visualising the gods Shri Krishnu, Shri Ramchandra, their Gokul and Ayodhya," the "father of Indian cinema" later wrote. "Could we, the sons of India, ever be able to see Indian images on the screen?"
Raja Harishchandra, Phalke's 1913 film, is the result – and it's this that the centenary celebrates as the first Indian film. But in order to produce a story of Hindu gods with the same production values as a foreign movie, Phalke had to go far from home. First he travelled to London, to learn more (from both the English film director Cecil Hepworth and the editor of trade magazine the Bioscope) and buy equipment. On his return, he set up a studio in a borrowed bungalow and assembled a cast and crew. His first movie was less than epic in scale, a time-lapse movie of a pea-plant growing, but it was a useful experiment. Inspired by the films of the French conjuror-turned-director George Méliès, Phalke used camera trickery to animate his mythological feature debut: the stop-motion work he learned on the pea-plant film, in-camera editing and multiple exposures.
Raja Harishchandra premiered on 9 May 1913, and notwithstanding Dadsaheb Torne's stagebound 40-minutes Shree Pundalik from 1912, and the reels and reels shot by Sen, Bhatavdekar and peers, it was marketed as: "First film of Indian manufacture. Specially prepared at enormous cost … Sure to appeal to our Hindu patrons." The boisterous Marathi Phalke biopicHarishchandrachi Factory (2009) has the film-maker admonished by a relative: "We're under British rule, and he's playing with their toys" – but despite the foreign help and foreign influence, Raja Harishchandra was presented and largely accepted as home-made, Indian "swadeshi" fare – Phalke even perforated and printed the film himself. A century later, it is still regarded as the foundation of the national film industry. It's the "celebration of an idea, and of a certainty", according to McKernan, "like saying The Birth of a Nation was the first American film."
We know Raja Harishchandra wasn't the breakthrough moment it is claimed to be, but we may never know for certain who the true trailblazers of Indian cinema were, as records and newspaper reports are hard to come by: "The Anglo press of the colonial period could not have bothered recording the deeds of Indian film-makers tramping the countryside," says Bhaumik. "The vernacular press did not notice cinema because it was too preoccupied with politics." In fact, Bhaumik questions whether we would remember Sen and his lost films had he not been involved with filming the Durbars in 1903 and 1911 – events that were also covered by western film-makers. "I would be sceptical of bestowing Sen with any extraordinary status of pioneership."
Phalke, at least, was canny enough to build on his early success, producing popular films until the sound era. In 1917, the year that Sen's hoard of films went up in smoke, a director called Rustomji Dhotiwala shot a remake of Raja Harishchandra for Madan's Elphinstone Bioscope company. Many historians believe that this is the version that survives, rather than Phalke's – so searching for India's first movie may very well be chasing a ghost.

DANIEL DAY LEWIS MOVIES (STRICTLY WATCH)





WATCH AND COMMENT ON IT >>

SHORT STORY >>उसने कहा था (जॉर्ज कार्लिन )

कुल मिलाकर साहित्य सच को छुपाने का एक औजार है।
:: :: ::
कामिक्सों में बाईं तरफ वाला इंसान हमेशा पहले बोलता है।
:: :: ::
जिस समय आप जोर से ब्रेक लगाते हैं, उस समय आपकी जिंदगी आपके पैर के हाथ में होती है।
:: :: ::
क्या आपने कभी गौर किया है कि आपसे धीमे गाड़ी चला रहा शख्स बेवकूफ होता है और आपसे तेज चला रहा शख्स पागल?
:: :: ::
तुम बंदर को अपनी पीठ से उतार ले गए हो तो इसका यह मतलब नहीं कि सर्कस शहर से जा चुका है।
:: :: ::
बीती रात मैंने एक अच्छे फेमिली रेस्टोरेंट में खाना खाया। हर मेज पर कोई न कोई बहस छिड़ी थी।
:: :: ::
वह परिपूर्ण कैसे हो सकता है? उसकी बनाई हर चीज तो मर जाती है।
:: :: ::
हवाई जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने पर जब ब्लैक बाक्स को कभी कोई नुकसान नहीं पहुँचता तो पूरा हवाई जहाज उसी चीज से क्यों नहीं बनाया जाता?
:: :: ::
हर कोई एक ही भाषा में मुस्कराता है।
:: :: ::
घर आपका सामान रखने की एक जगह भर होता है जबकि आप और सामान लाने के लिए बाहर गए रहते हैं।
:: :: ::
बुढ़ापे की एक सबसे अच्छी बात यह है कि आप हर तरह के सामाजिक दायित्वों से सिर्फ यह कहकर छुट्टी पा सकते हैं कि मैं बहुत थक गया हूँ।
:: :: ::
नास्तिकता एक नान-'प्राफेट' आर्गनाइजेशन है।
:: :: ::
सातवें आसमान की चर्चा ज्यादा होती है, मगर असल में छठवाँ आसमान सस्ता, कम भीड़-भाड़ और मनमोहक नजारे वाला है।
:: :: ::
लोग इसे अमेरिकन ड्रीम इसलिए कहते हैं क्योंकि इस पर विश्वास करने के लिए नींद में होना जरूरी है।
:: :: ::
"नो कमेंट" एक कमेंट है।
:: :: ::
यदि कोई व्यक्ति हमेशा मुस्कराता रहता है तो शायद वह कोई ऐसी चीज बेच रहा है जो काम नहीं करती।
:: :: ::
धर्म जूते की एक जोड़ी की तरह होता है... आप अपने नाप का ले लीजिए मगर मुझे अपना जूता पहनाने की कोशिश मत करिए।
:: :: ::
कुछ लोग गिलास को आधा भरा देखते हैं और कुछ लोग आधा खाली। मैं उसे एक ऐसे गिलास के रूप में देखता हूँ जो अपनी जरूरत से दुगुने आकार का है।
:: :: ::
किसी को एक मछली दे दीजिए तो वह उसे एक दिन खाएगा। उसे मछली पकड़ना सिखा दीजिए तो वह एक नाव में बैठकर सारा दिन बीयर पीता रहेगा।

HINDI THEATE GROUPS IN MUMBAI


Theatre Groups
 

 Hindi Theatre Groups


Big Bang Theatres Foundation
Big Bang Theatres Foundation has been found by film maker and writer Akashaditya Lama... more...
Galaxy
Galaxy theatre group was started on the eve of World Theatre Day 27th March 2013 by Vinod Prabhakar and Shyam Bhimsaria... more...
Rangshila Cultural and Development Society
Avneesh Mishra, the Artistic Director of Rangshila has worked with Darpan Theatre group... more...
Five Senses
5 Senses has been found by Hardik Shah, an alumnus of the National School of Drama (NSD). The group is made up of a unique combination... more...
Ranga Theatre
Ranga theatre company incorporates various forms in its theatre practice but is largely rooted in Indian tradition...... more...
Ashima Theatre Group
Ashima Theatre Group (ATG) is led by Mayank Singh. It was found on January 19 2013...... more...
Rangbaaz
Imraan Rasheed and Pawan Uttam have been active in the Hindi Theatre Scene in India since the past 8 years with groups like... more...
Karma Kala Manch
Karma Kala Manch is a co-operative theatre group formed by theatre enthusiasts from different walks of life... more...
Actor's Cult
Actors' Cult is a Mumbai based theatre company, comprising mainly of the National School of Drama (NSD) graduates... more...
Manch Art Group
After having worked in Patna for 11 years, Manch in the last two years has extended its operations to Rajasthan and Delhi... more...
Humlog
Humlog, Mumbai was formed in 1995, and has been working since then with a highly professional and experienced team... more...
Darpan Theatre and Cine Arts
It was founded by Mr. Sunil Prem Vyas in 1997 with a mission of encouraging new talent in Hindi Theatre... more...
Arpana
Arpana was found in 1985 by a group of like-minded theatre people. Sunil Shanbag, Shishir Sharma, Lata Sharma, Reetha Balsavar, Utkarsh... more...
The Experimental Theatre Foundation
Founded in 1992 by Manjul Bhardwaj and other like-minded people, the Experimental Theatre... more...
IPTA
The Indian People's Theatre Association was formed during the Quit India Movement in 1942. Upon its formal inauguration in 1943-44... more...
Motley
In collaboration with a fellow FTII -ite, Naseeruddin Shah started the theatre group, 'Motley' that celebrated its twentieth anniversary in 1979...more...
Dreams Theatre
Dreams Theatre Group was found by Jitendra Ghete in 2010 with some enthusiastic theatre lovers...more...
IDEA
It regards itself as the only theatre group in India working towards the promotion of Hindustani Theatre... more...
Ekjute
Ekjute under the guidance of Nadira Zaheer Babbar, a National School of Drama (NSD) graduate, has presented over sixty plays... more...
Ansh
Makrand Deshpande started his theatre group Ansh in 1993 and has written, produced and directed about 30 plays since... more...
Yatri Theatre
Yatri 'the theatre repertory', is one of the most patronized cultural groups in the country. Yatri has always strived hard to maintain and preserve...more...
Aranya
Aranya was formed in the year 2003 by a group of friends. Coming from different backgrounds each person... more...
Ank
Ank has raised a substantial audience for hindi, and raising the integrity of Hindi theatre... more...
Avitoko
Avitoko was established on the 1st of May 2001. During these three years, Avitoko has taken a meaningful effort to... more...
Cadence
Cadence is an independent, self-sponsored group of young enthusiasts who have a love for Acting.... more...


BY MUMBAITHEATERGUIDE.COM